Gajendra Moksha Stotra Lyrics in Hindi :- क्या आप Gajendra Moksha Stotra Hindi में पढ़ना चाहते हैं? अगर आपका जवाब हां है तो यह पोस्ट सिर्फ आपके लिए है। Gajendra Moksha बहुत ही प्रभावशाली और लाभकारी स्तोत्र है। अगर आपके जीवन में किसी भी तरह का संकट आ रहा है तो आपका shri gajendra moksha स्तोत्र बहुत फायदेमंद साबित हो सकता है।
आप जानते हैं कि श्री गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की रचना कैसे हुई थी? आइए इस पोस्ट के माध्यम से आपको श्री गजेंद्र के बारे में बताते हैं। गजेंद्र भगवान विष्णु के भक्त हैं जो प्रतिदिन भगवान विष्णु की पूजा करते थे। श्री गजेन्द्र हाथियों के राजा थे, एक बार की बात है, वे श्री विष्णु की पूजा करते हुए पास के एक तालाब से फूल लेने गए।
इसी दौरान एक भूखे मगरमच्छ ने श्री गजेंद्र पर हमला कर दिया। श्री गजेंद्र ने मगरमच्छ से अपनी जान बचाने की बहुत कोशिश की लेकिन हर कोशिश असफल रही। अंत में हार मान कर उन्होंने भगवान विष्णु को पुकारा। भगवान विष्णु ने अपने भक्त की पीड़ा नहीं देखी और भगवान विष्णु स्वयं अपने प्रिय भक्त को प्रकट हुए।
और साथ ही दुष्ट मगरमच्छ को मारकर श्री गजेंद्र की जान बचाई। तो प्यारे भक्तों, इस घटना के बाद श्री गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की रचना की गई। यह था श्री गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र का वर्णन।
अब मैं आपको अपने बारे में थोड़ा बताता हूँ। दरअसल मेरा नाम शिवपूजन है और मुझे हिंदू धर्मों और शास्त्रों आदि के बारे में 10 साल का अनुभव है। मैंने बचपन से ही भगवान से प्यार किया है।
अब मैं हिंदू धर्म के सभी प्रकार के भजन, चालीसा, मंत्र जाप आदि का वर्णन करता हूं। शोध के दौरान हमने पाया कि कई स्तोत्र, मंत्र, चालीसा आदि के तहत पीडीएफ सुविधा बहुत कम उपलब्ध है। हम आपसे वादा करते हैं कि हम आपको हर स्तोत्र, चालीसा, मंत्र आदि के तहत पीडीएफ सुविधा प्रदान करेंगे।
हमारा एक प्रश्न है। आप से?, क्या आप Gajendra Moksha Stotra Hindi me ऑनलाइन ही पढ़ना चाहते हैं, हमें ऐसा नहीं लगता। आपकी श्रद्धा और भक्ति से हम अनुमान लगा सकते हैं कि आप Gajendra Moksha Stotra ( Hindi में) ऑफलाइन भी पढ़ना चाहते हैं।
इसलिए आपकी सेवा को ध्यान में रखते हुए हमने Hindi में Gajendra Moksha Stotra पीडीएफ की सेवा प्रदान की है। आप दिए गए डाउनलोड बटन पर क्लिक करके Gajendra Moksha Stotra को डाउनलोड कर सकते हैं। आइए अब हम एक साथ Hindi में श्री Gajendra Moksha Stotra का जाप करें।
Gajendra Moksha Stotra Lyrics in Hindi | पढ़ें गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र के बोल
॥ श्री गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र ॥
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
अर्थ :- बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥
गजेन्द्र उवाच गजराज ने (मन ही मन) कहा –
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥
अर्थ :- जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ॥२॥
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
अर्थ :- जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥
क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम ।
स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥
अर्थ :- अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
अर्थ :- समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
अर्थ :- भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है – वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
अर्थ :- आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
अर्थ :- जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
अर्थ :- उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है ॥९॥
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
अर्थ :- स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है ॥१०॥
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
अर्थ :- विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥११॥
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
अर्थ :- सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
अर्थ :- शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
अर्थ :- सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥
निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
अर्थ :- सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
अर्थ :- जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
अर्थ :- मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है ॥१७॥
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
अर्थ :- शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥
अर्थ :- जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
अर्थ :- जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
अर्थ :- उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
अर्थ :- ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
अर्थ :- जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जात है ॥२३॥
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
अर्थ :- वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥२४॥
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
अर्थ :- मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥
अर्थ :- इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ॥२६॥
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥
अर्थ :- जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
अर्थ :- जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥
अर्थ :- जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच – श्री शुकदेवजी ने कहा –
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
अर्थ :- जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान –
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
अर्थ :- उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।
दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा –
न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
अर्थ :- सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥
अर्थ :- उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र के लाभ | Benifits of Gajendra Moksha Stotra
- जीवन में कोई संकट नहीं रहता है
- सुख और शांति बनी रहती है
- नकारात्मक विचारों से छुटकारा
- कर्ज की समस्या कम
- भगवान विष्णु की कृपा सदैव बनी रहती है
- पाठ के दौरान चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा फैलती है
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